भारत में स्टार्टअप का परिदृश्य अब कोई प्रारंभिक स्थिति में नहीं है जिसमें अनेकों बढ़ती हुई कंपनियां हो और वे बिज़नेस कर आसानी से निकल सकें. यह अब और भी चुनौतीभरा हो गया है इसीलिए अधिक निवेश करने में पैसा डूबने की स्थिति बन सकती है, स्टार्टअप को अपनी क्षमताओं से अधिक मेहनत करने और कई बार उनके हितों के विरुद्ध जा कर निवेशकों के हितों की रक्षा करने के लिए काम करना होता है. स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया जैसी सरकारी पहलों से हमारी अर्थव्यवस्था को अब डिस्ट्रेस्ड फंड मार्केट की उपलब्धता की ज़रूरत है. इसका नाम ही अपने आप में खुद को समझाता है, यह एक प्रकार की प्रक्रिया है जिसमें डिस्ट्रेस डेब्ट या स्टार्टअप में निवेश किया जाता है जो पहले से ही क़र्ज़ तले दबे हैं या लोन का भुगतान न करने, अनुपालन की ज़रूरतों को पूरा न कर पाने या कंपनी के किसी प्रमोटर द्वारा की गयी धोखाधड़ी के कारण संकट में हैं.
पहली नजर में, एक ऐसे संगठन में आपके फंड में निवेश करने के लिए भुगतान करना एक खतरनाक विचार लगता है जिसने पहले ही अक्षमता का संकेत दे दिया हो. यहां बताया गया है कि हम किस तरह से ऐसे उत्पाद में निवेश की मांग बना सकते हैं, जिसमें, आपूर्ति धीरे-धीरे बढ़ रही हो:
निवेश
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वरर्तमान दाम (रु.)
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वैल्यू (रु.) अगर टर्नअराउंड सफल हो जाता है
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वैल्यू (रु.) अगर टर्नअराउंड फेल हो जाता है
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अपेक्षित मान (रु.)
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डेब्ट
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100
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200 (100% लाभ)
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80 (20% नुकसान)
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140 (40% लाभ)
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इक्विटी
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400
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1000 (150% लाभ)
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0 (100% नुकसान)
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500 (25% लाभ)
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मान लीजिए कि खराब एसेट में निवेश के बाद सफलता की 50% संभावना होती है, तो अपेक्षित लाभ दर हमें कंपनी के खराब डेट में निवेश की बजाय बेहतर लाभ प्रदान करती है. निवेशक इसका चुनाव इसीलिए करते है क्योंकि अगर एक कंपनी असफल हो जाती है तो इक्विटी की रिकवरी से पहले क़र्ज़ की रिकवरी होती है क्योंकि पारंपरिक रूप से लोन देने वालों का अधिकार पहले होता है. यह अवसर सहज होता है, फिर, ऋण निवेशकों के लिए अधिक आकर्षक होता है.
दुनिया भर में मुश्किल में चल रहा फंड मार्केट, केवल इन कंपनियों में निवेश करने पर काम नहीं करता है, बल्कि निवेशक अक्सर इन संस्थाओं की निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में भी शामिल होते हैं, कभी-कभी, निवेशक उधार देने वाली स्थितियों में भी शामिल होते हैं, जिसमें वे कंपनी के डेट को खरीद सकते हैं (कम हुए मूल्य के लिए, अगर कंपनी ओवरलेवरेज़्ड है) और इसे पूरी तरह से अधिग्रहित कर सकते हैं, ताकि निवेशक आपके लिए कंपनी को डेट चुकाने हेतु राशि का भुगतान करने के बजाय आपके लिए जगह बना सकें.
डिस्ट्रेस फंड अतिरिक्त कारणों से ज़रूरी हैं, जैसे:
- ब्याज भुगतान के रूप में निवेशकों को नियमित कैश फ्लो का भुगतान किया जाता है, जो लाभांश के भुगतान के विपरीत अनिवार्य होता है, विशेष रूप से स्टार्ट-अप के मामले में
- कॉर्पोरेट रीस्ट्रक्चरिंग पावर को ऋणदाता के साथ केंद्रित किया जा सकता है, इसलिए संरचना ऐसी हो सकती है कि ऋण चुकौती को लंबी अवधि के निर्वाह के लिए प्राथमिकता दी जाए.
दिवालियापन कानून जैसी पॉलिसी की कानूनी बाधाओं के साथ, अब स्टार्टअप के बंद होने पर डिस्ट्रेस एसेट परचेज़ से थोड़ी राहत मिल सकती है. शायद, क्राउडफंडिंग का उपयोग संकट में फंसी इकाइयों के लिए राहत प्रदान करने के लिए किया जा सकता है, यह प्राइवेट इक्विटी फंड के रूप में किया जा सकता है जो कि सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य संपत्ति में बदली जा सकती है.
नीचे दिया गया एक तरीका लागू किया जा सकता है:
- एडलवाइस एसेट मैनेजमेंट डिपार्टमेंट या डीएसपी ब्लैकरॉक के डिस्ट्रेस्ड डेब्ट फंड जैसे एआरसी को अधिक फंड लाने के लिए जनता के लिए खोलने की अनुमति दें, जबकि इसके साथ ही यह भी ज़रूरी है कि सार्वजनिक हित के इन निवेशों को उनके अधिक जोखिम के लिए वर्गीकृत किया जाए.
पब्लिक से धन जुटाने से दो गुना लाभ होगा:
a.फंड प्रबंधकों को संभावित खुदरा निवेशकों को मजबूत विज्ञापन देने के लिए प्रोत्साहित करना (क्योंकि उनके पास लाभ प्राप्त करने के लिए एक नया प्रोडक्ट हो सकता है और अधिक पूंजी तक पहुंच हो सकती है), जिससे जागरूकता बढ़ जाती है.
b. बड़ी इन्वेस्टमेंट फर्म पर जोखिम को कम करें जो डिस्ट्रेस्ड एसेट में फंड रखकर अपनी लिक्विडिटी को कम नहीं कर सकती.
- इन एआरसी के भीतर इस प्रकार की प्रक्रियाओं का निर्माण करना जिससे वे निजी इक्विटी प्लेयर्स की तरह काम कर सके, जिसमें वे इन संस्थाओं में निवेश करने और इन संगठनों के मैनेजमेंट का प्रभार लेने के लिए मैनेजमेंट शुल्क ले सकें. संकटग्रस्त संस्थाओं के प्रबंधन में सक्रिय भागीदारी डेट की स्तिथि में निवेश के ज़रिए लाभ की सम्भावना बढाती है, और 100% लाभ जैसे मौके बनाती है जैसा ऊपर बताया गया है, साथ ही प्राप्त निवेश इन संगठनों के लिए सुरक्षित रहता है. निवेशकों के लिए सबसे खराब स्थिति उस समय आती है जब वे अपने डेट को वापस प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं (जिन्हें उन्होनें उनके मूल्य के एक छोटे हिस्से में अधिग्रहीत किया था) लेकिन वे इकाई का नियंत्रण को हासिल करते हैं, फिर वे कैपेक्स / ओपेक्स के लिए इन निगमों में पूंजी लगाते रहते हैं और अधिकतम लाभ की उम्मीद करते रहते हैं.
मार्केट को विनियमित करने वाले नियमों में अक्षमताओं और खामियों का खतरा सदैव रहता है, इस प्रकार के सेट-अप में, वेंचर केपिटलिस्ट के हितों की रक्षा करना और इनोवेटिव समस्या समाधान करने वाले स्टार्टअप में सीधे निवेश के लिए अधिक मांग बनाना, बड़े निवेशकों की रुचि बढ़ाएगा और वे उद्यमी के प्रोडक्ट तक पहुंच प्राप्त करना चाहेंगे जबकि इससे उद्यमी के खुद के मालिकाना हक वाली स्थिति की संभावना कम हो जाएगी. इसलिए, इस तरह की मार्केट स्थापित करने से पहले मजबूत नियामक पॉलिसी की आवश्यकता होती है क्योंकि इससे भारत में स्टार्ट-अप स्पेस की वृद्धि के चरण में बाधा आ सकती है, इस प्रक्रिया को भी और भी खराब कर सकती है कि इस उपाय को मुख्य रूप से छोटे और मध्यम उद्यम मालिकों को होने वाली समस्याओं को बढ़ाकर कुशन करना चाहिए.